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दीनदयाल उपाध्याय (Deendayal Upadhyay) जयंती और पुण्यतिथि कब है?

पंडित दीनदयाल उपाध्याय एक भारतीय विचारक, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, इतिहासकल और भारतीय जनसंघ (भारतीय जनता पार्टी) के अध्यक्ष भी बने, उन्होंने ब्रिटिश शासन के दौरान भारत द्वारा पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता और पश्चिमी लोकतंत्र का आंख बंद कर समर्थन का विरोध किया। यद्यपि उन्होंने लोकतंत्र की अवधारणा को सरलता से स्वीकार कर लिए, लेकिन पश्चिमी कुलीनतंत्र, शोषण और पूँजीवाद को भरने से साफ इंकार कर दिया था। इन्होने अपना जीवन लोकतंत्र को शक्तिशाली बनाने और जनता की बातों को आगे रखने में लगा दिया। 

दीनदयाल उपाध्याय (Deendayal Upadhyay) जयंती और पुण्यतिथि कब है?
दीनदयाल उपाध्याय पुण्यतिथि 

जिन्होंने अपनी पूरी जिंदगी राष्ट्र को समर्पित कर अपने प्रखर विचारों व व्यापक चिंतन से आने वाले समय में राजनीती ही नहीं परम राष्ट्रनीति की नयी परिभाषा दी। उनके सिद्धांतो ने एक ऐसे संगठन की नींव रखी जो आने वाले समय में देश की नीति का निर्धारण करने वाला था। दीनदयाल जी वहुआयामि व्यक्तित्व के धनी थे इस महान व्यक्तित्व में कुशल चिंतक संगठन शास्त्री, शिक्षा वेद, राजनीतिज्ञ, वक्ता व लेखक का प्रतिविम्ब था। 

क्या आप जानते है? पंडित दीनदयाल उपाध्याय (Pandit Deendayal Upadhyay) कौन थे यदि नहीं तो आज इस लेख में आपको दीनदयाल उपाध्याय जी के बारे में बहुत कुछ जानने को मिलेगा आज हम पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी की जीवनी, पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जीवन परिचय इन हिंदी, पंडित दीनदयाल उपाध्याय पर निबंध, उनका जन्म, उनकी जयंती उनके परिवार, अंत्योदय दिवस कब मनाया जाता है, उनकी शिक्षा, उनका राजनीती कैरियर, उनकी मृत्यु कैसे हुई और कब हुई, पुण्यतिथि कब है इस सम्बन्ध में आपको जानकारी देंगे।

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पंडित दीनदयाल उपाध्याय जयंती कब है? (pandit deendayal upadhyay jayanti kab hai?)

प्रभावशाली व्यक्तित्व, प्रखर चिंतक, एक आम भारतीय सा भीड़ में गुम हो जाने वाला सामान्य सा चेहरा जिनके दुबले-पतले शरीर में समाया हुआ था आकाश सा व्यक्तित्व समुद्र सी गहरी सोच और समय पर परिवर्तन के पग चिन्ह छोड़ जाने की अदम्य क्षमता ऐसे थे एकात्म मानववाद और अंत्योदय जैसे  दर्शन के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी की जयंती 25 सितंबर को प्रत्येक वर्ष देशभर में मनाया जाता है और साथ ही हर वर्ष 25 सितंबर को दीनदयाल उपाध्याय जी के जन्मदिवस और जयंती के उपलक्ष्य में अंत्योदय दिवस भी मनाया जाता है। 

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दीनदयाल उपाध्याय का बचपन और प्रारंभिक जीवन (pandit deendayal upadhyay ka jeevan parichay)

दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितंबर 1916 को मथुरा, उत्तर प्रदेश के एक मध्यमवर्गीय प्रतिष्ठित हिन्दू परिवार में हुआ था। उनके परदादा का नाम पंडित हरिराम उपाध्याय था, जो एक प्रख्यात ज्योतिषी थे। उनके पिता का नाम श्री भगवती उपाध्याय तथा माता का नाम रामप्यारी था, उनके पिता जलेसर में सहायक स्टेशन मास्टर के रूप में कार्यरत  माँ बहुत ही धार्मिक विचारधारा वाली महिला थी। उनके छोटे भाई का नाम शिवदयाल उपाध्याय था। दुर्भाग्यवश जब उनकी उम्र मात्र ढाई वर्ष की थी, तो उनके पिता का असामयिक निधन हो गया। 

इसके बाद उनका परिवार उनके नाना के साथ रहने लगा। यहां उनका परिवार दुःख से उबरने का प्रयास कर रहा था। की तपेदिक रोग के इलाज के इलाज के दौरान उनकी माँ दो छोटे बच्चों को छोड़कर संसार से चली गई, सिर्फ यही नहीं जब वे 10 वर्ष थे तो उनके नाना का निधन हो गया। उनके मां ने उनका पालन-पोषण अपने ही बच्चों की तरह तरह किया। छोटी अवस्था में ही अपना ध्यान रखने के साथ-साथ जो उन्होंने अपने छोटे भाई के अभिभावक का दायित्व भी निभाया परन्तु दुर्भाग्य से भाई को चेचक की बीमारी हो गई और 18 नवंबर 1934 को उसका निधन हो गया। दीनदयाल जी ने काम उम्र में ही अनेक उतार-चढाव देखा, परन्तु अपने दृढ निश्चय से जिंदगी में आगे बढे।

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पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी का जन्म कब और कहा हुआ 

25 सितंबर 1916 को मथुरा जिले के छोटे से गांव नगला चंद्रभान में पंडित दीनदयाल जी का जन्म एक अति निर्धन परिवार में हुआ था। यह कहना मुश्किल है ये उनके जीवन की यात्रा का आरम्भ था या जीवन के संघर्षों की यात्रा का बालक दीनदयाल होश संभल भी ना पाए थे कि उनके माता-पिता का देहांत हो गया इसके बाद उनका और उनके छोटे भाई का परवरिश उनके नाना और मां द्वारा किया गया।

पंडित दीनदयाल उपध्याय की पढाई-लिखाई

दीनदयाल जी ने सीकर के कल्याण हाई स्कूल से मैट्रिक और पिलानी के बिड़ला कॉलेज से इंटर की परीक्षा पास की इन्हे दोनों ही परीक्षाओं में गोल्ड मैडल प्राप्त हुआ। सीकर के महाराजा ने दीनदयाल जी की प्रतिभा को देखकर उन्हें छात्रवृत्ति भी दी फिर कानपुर के सनातन धर्म कॉलेज कानपुर से उन्होंने B.A.  की पढ़ाई की जो विषय यहाँ पढ़ाये जाते थे दीनदयाल जी ने उसका मन लगाकर अध्ययन किया।

लेकिन दीनदयाल जी ने यहाँ वह सिख व दिक्षा भी ली जो इस कॉलेज की पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं था। उन्होंने सन 1939 में प्रथम श्रेणी में स्नातक की परीक्षा पास किया इसके बाद अंग्रेजी साहित्य में स्नाकोत्तर की पढ़ाई करने के लिए सेंट जोंस कॉलेज आगरा में दाखिला लिए पहले वर्ष की परीक्षा में प्रथम श्रेणी से परीक्षा पास किये अंतिम वर्ष की परीक्षा भाई के बीमारी के कारण नही दे पाये। उन्होंने अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सिविल सेवा परीक्षा में उत्तीर्ण होने के वावजूद उसका परित्याग कर दिया। 

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आरएसएस का सफर - राष्ट्रिय स्वयं सेवकसंघ RSS 

सनातन धर्म कॉलेज कानपुर  में ही उनका सम्पर्क श्री बलवंत महासिंघे से हुआ जिनकी प्रेणना से सन 1937 में वे राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ में सामिल हो गए दीनदयाल जी के लिए ये समय वक्तिगत संघर्षों के साये से बाहर निकलकर राष्ट्र की समग्रता के दर्शन का साबित हुआ। दीनदयाल जी B.A.करने के बाद M.A. करने के लिए आगरा चले गए यहाँ पर वे नानाजी देशमुख भावराज जुगादे के साथ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की गतिविधियों में हिस्सा लेने लगे।

उनमें सामाजिक जीवन के प्रति चेतना के अंकुर फूट चुके थे, उनके मामा जिन्होंने बचपन में उनका लालन-पालन किया था उन्हें लगने लगा था भंजा अब पढ़ लिख गया है परिवार के लिए कुछ करेगा लेकिन दीनदयाल जी का परिवार तो बहुत विशाल था। समस्त भारत को उन्होंने अपना परिवार मान लिया था। दीनदयाल जी का लक्ष्य कुछ और ही था।

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पंडित दीनदयाल उपध्याय जी का पत्र मामा के नाम 

उन्होंने अपने संकल्प के बारे में अपने मामा जी को जो पत्र लिखा उसकी बानगी देखिये राष्ट्र के प्रति समर्पण की जिद नजर आती है। जब किसी मनुष्य के किसी अंग को लगवा मार जाता है तो वह चेतना शून्य हो जाता है इसी भांति हमारे समाज को लगवा मार गया है। उसको कोई कितना भी कष्ट क्यों ना दे पर महसूस ही नहीं होता हरेक तभी महसूस करता है जब चोट उसके सर पर आकर पड़ती है। 

हमारे पतन का कारण हमारे संगठन की कभी ही है बाकि बुराइया, अशिक्षा आदि तो पतित अवस्था के लक्षण मात्र ही है परमात्मा ने हम लोगो को सामर्थ बनाया है क्या फिर हम अपने में से एक को भी देश के लिए नहीं दे सकते अपने हमे शिक्षा दीक्षा देकर सब प्रकर से योग्य बनाया क्या आप मुझे समाज के लिए नहीं दे सकते जिस समाज के हम उतने ही ऋणी है यह तो एक प्राकर से त्याग भी नहीं है विनियोग है समाज रूपी जीवन में खाद देना है  फिर उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा।

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पत्रिका का प्रकाशन

देश स्वतंत्र हो चूका था पर समजा संगठित नहीं था देश में कई विसंगतियां पैदा हो रही थी उनमें सत्ता का लोभ नहीं समाज में वैकल्पिक विचार धारा की स्थापना का दृढ़ निश्चय था इस उद्देश्य के लिए वे जिन जान से जुट गए दीनदयाल जी के अनुसार भारत जनसमस्याओं का सामना कर रहा है उसका मूल कारण इसकी राष्ट्री पहचान की उपेक्षा है।

"आर्थिक योजनाओं तथा आर्थिक प्रगति का माप समाज के ऊपर की सीढ़ी पर पहुँचे हुए व्यक्ति नहीं, बल्कि सबसे नीचे के स्तर पर विद्यमान व्यक्ति से होगा"

दीनदयाल उपाध्याय

अनेकता में एकता और विभिन्न रूपों में एकता की अभिव्यक्ति भारतीय संस्कृति की सोच रही है। अब दीनदयाल जी की भूमिका बदल चुकी थी अब चुनौती थी राष्ट्र की पुनर्निर्माण की जिसके लिए उन्होंने लखनऊ में राष्ट्रधर्म प्रकाशन संस्था की स्थापना की और यहां से राष्ट्र धर्म नामक मासिक पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ किया। इसके अलावा उन्होंने पाञ्चजन्य व स्वदेश के सम्पादन में भी सहयोग दिया। अपने सार्वजानिक जीवन में उनकी सादगी और सरलता मानव एक किम्दन्ती बन गई थी। उनके वैचारिक दृष्टि से नहीं आचार व्यवहार में भी कार्यकर्ता उनसे बहुत कुछ सीखते थे। 

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भारतीय जनसंघ की स्थापना

गंभीर से गंभीर विषय भी अपनी दैनिक गतिविधियों के बीच बड़ी सरलता से निपटा दिया करते थे। उनकी इन्हीं विशेषताओं के कारण उनहे राजनीतिज्ञ क्षेत्र का दायित्व सौंपा गया। दिनांक 21 सितम्बर 1951के ऐतिहासिक दिन को दीनदयाल जी ने उत्तर प्रदेश में एक राजनितिक सम्मेलन का सफल आयोजन किया। इसी सम्मेलन में देश में एक नए राजनीतिक दल भारतीय जनसंघ राज्य इकाई की स्थापना हुई। 

इसके एक माह बाद 21 अक्टूबर 1951 को डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भारतीय जनसंघ के प्रथम अखिल भारतीय सम्मेलन की अध्यक्षता की, दीनदयाल जी में संगठन का अद्वितीय और अद्भुत कौशल था। समय बीतने के साथ भारतीय जनसंघ के विकास यात्रा में वो ऐतिहासिक दिन भी आया जब सन 1968 में विनम्रता की मूर्ति इस महान नेता को दाल के अध्यक्ष के रूप में प्रतिष्ठित किया गया। अपने उत्तर दायित्व के निर्वहन और जनसंघ के देश भक्ति के सन्देश को लेकर दीनदयाल जी ने दक्षिण भारत का भ्रमण किया। 

पंडित दीनदयाल जी की कुशल संगठन क्षमता के लिए डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी जी ने कहा था अगर भारत को दो दीनदयाल मिल जाते तो भारत का राजनीतिज्ञ परिदृश्य ही अलग होता। इससे पहले की जनसंघ राजनितिक ताकत बन पता डॉ मुखर्जी की रहस्यमय परिस्थितियों में मृत्यु हो गई नवजात पार्टी को संभालने की जिम्मेदारी दीनदयाल जी के कंधो पर आ गई राजनितिक कार्य करते हुए भी संगठनात्मक कार्य उनके लिए सर्वोच्चपरि था। उन्होंने 1967 में जनसंघ के कालिकट अधिवेशन में पार्टी का अखिल भारतीय अध्यक्ष का पद तब स्वीकार किया जब दाल के संगठनात्मक नींव डालने का कार्य पूर्ण हो गया।  

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जनसंघ से उनका सम्बन्ध 

भारतीय जनसंघ (भारतीय जनता पार्टी) की स्थापना डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा वर्ष 1951 ई. में किया गया एवं दीनदयाल उपाध्याय को प्रथम महासचिव नियुक्त किया गया। वे लगातार दिसंबर 1967 तक जनसंघ के महासचिव बने रहे। उसकी कार्यक्षमता, ख़ुफ़िया गतिविधियों और परिपूर्णता के गुणों से प्रभावित होकर डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी उनके लिए गर्व से सम्मान पूर्व कहते थे कि यदि मेरे पास दो दीनदयाल हों, तो मैं भारत का राजनितिक चेहरा बदल सकता हूँ। परन्तु अजानक वर्ष 1953 में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की असमय निधन से पुरे संगठन की जिम्मेदारी दीनदयाल उपाध्याय के कंधो पर आ गई, इस प्रकार उन्होंने लगभक 15 वर्षो तक महासचिव के रूप में जनसंघ की सेवा की, भारतीय जनसंघ के 14 वे वार्षिक अधिवेशन दिसंबर 1967 में दीनदयाल उपाध्याय जी को कालीकट में जनसंघ का अध्यक्ष निर्वाचित किया गया। 

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भारतीय लोकतंत्र और समाज के प्रति उनका विचार 

दीनदयाल उपाध्याय की अवधारणा थी कि आजादी के बाद भारत के विकास का आधार अपनी भारतीय संस्कृति हो, ना की अंग्रेजो द्वारा छोड़ी गई पश्चिमी विचारधारा हालाँकि भारत में लोकतंत्र आजादी के तुरंत बाद स्थापित कर दिया गया था। परन्तु दीनदयाल के मन में यह आशंका थी कि लम्बे वर्षों की गुलामी के बाद ऐसा नहीं कर पायेगा उनका विचार था कि लोकतंत्र भारत का जन्मसिद्ध अधिकार है। 

न की पक्षिम (अंग्रेजों) का एक उपहार,  वे इस बात पर भी बल दिया करते थे कि कर्मचारियों और मजदूरों की शिकायतों के समाधान पर सरकार को ध्यान देना चाहिए। उनका विचार था कि प्रत्येक व्यक्ति का सम्मान करना प्रशंसन का कर्तव्य होना चाहिए। उनके अनुसार लोकतंत्र अपनी सीमाओं से परे नहीं जाना चाहिए और जनता की राय उनके विश्वास और धर्म के अलोक में सुनिश्चित करना चाहिए। 

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एकात्म मानववाद की अवधारणा 

दीनदयाल द्वारा स्थापित एकात्म मानववाद की अवधारणा पर आधारित राजनीतिक दर्शन भारतीय जनसंघ (भारतीय जनता पार्टी) की दें हैं। उनके अनुसार एकात्म मानववाद प्रत्येक मनुष्य के शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा का एक एकीकृत कार्यक्रम है, उन्होंने कहा कि स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में भारत पश्चिमी और धारणाओं जैसे व्यक्तिवाद,लोकतंत्र, समाजवाद,साम्यवाद और पूँजीवाद पर निर्भर हो सकता है। उनका विचार था कि भारतीय मेधा पश्चिमी सिद्धांतों और विचारधाराओं से घुटन महसूस कर रही है। परिणाम स्वरूप मौलिक विचारधारा के विकास और विस्तार में बहुत बाधा आ रही है। 

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पंडित दीनदयाल उपाध्याय के विचार 

रिलिजन यानि मत, पंथ, मजहब यह एक धर्म नहीं हैं। धर्म तो व्यापक तत्व है। यह जीवन के सभी पहलुओं से सम्बन्ध रखने वाला तत्व हैं। इससे समाज की धारणा होती है और आगे बढ़े तो सृष्टि की धारणा होती है या धारण करने वाले जो वस्तुएं हैं वह धर्म है। उत्पादन प्रणाली के लिए सात (M) आवश्यक हैं। मैन, मैटेरियल, मनी, मैनेजमेंट, मेथड, मार्केट, मशीन धर्मानुसार चलने वाला अल्पमत भी श्रेष्ठ, राष्ट्रीयता हमारा धर्म है। उसका मत संग्रह से नहीं होगा। यह निर्णय तो प्रकृति ने कर दिया है। राजा कौन बनेगा यह बहुमत से तय होगा। पर आज क्या करेगा यह धर्म से तय होता है। प्रजातंत्र की व्याख्या में जनता का शासन ही पर्याप्त नहीं वह शासन जनता के हित में भी होना चाहिए। जनता के हित का निर्णय तो धर्म ही कर सकता है। 

अतः जन राज्य को धर्म राज्य भी होना आवश्यक है। सच्चा प्रजातंत्र वही हो सकता है जहां स्वतंत्रता और धर्म दोनों हो। बहुमत के उस आचरण को चुनौती देना होगा जो धर्म के प्रतिकूल है, जैसे लिंकन ने दास प्रथा को चुनौती दी थी और गृहयुद्ध का मुकाबला किया। बाजार का दायित्व है मांग पूरी करना न की मांग पैदा करना चिकित्सा निशुल्क होनी चाहिए। पूंजी-निर्माण के लिए आवश्यक है की सम्पूर्ण उत्पादन का उपभोग करने के स्थान पर उसमें से कुछ बचाया जाए और उसे भावी उत्पादन के लिए काम में लिया जाय। 

श्रम और पूंजी का सम्बन्ध प्रकृति और पुरुष का सम्बन्ध है। सृष्टि इन दोनों की लीला है। इसमें किसी की भी अवलेहना नहीं किया जा सकता प्रकृति के शोषण के स्थान पर दोहन उपयुक्त होगा। शिक्षा समाज का दायित्व है। जब अनार्थिक है उसे नष्ट होना चाहिए यह पूँजीवाद की मानसिकता है। हमारी संस्कृति का शश्वत देवी और प्रवाहमान रूप है। हाथों को काम और पेट को भोजन सामान रूप से आवश्यक है। 

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पंडित दीनदयाल उपध्याय जी की हत्या 

दीनदयाल उपाध्याय की मृत्यु कैसे हुई

19 दिसंबर 1967 को दीनदयाल उपाध्याय को भारतीय जनसंघ का अध्यक्ष चुना गया पर नियति को कुछ और ही मंजूर था, 11 फरवरी 1968 की सुबह मुग़लसराय रेलवे स्टेशन पर दीनदयाल का मृत्य शरीर पाया गया। 11 फरवरी 1968 को बज्राघात हुआ जब सारे देश ने उनकी हत्या का समाचार सुना पूरा देश शोकाकुल हो गया लेकिन जाने से पहले वो देश को दे गए एक ऐसा दर्शन जो देश के मानस पटल से लुप्त होने लगा था। उन दिनों देश समाजवाद और पूंजीवाद के द्वंदों से गुजर रहा था। तब राजनीतक नेतृत्व को भारतीय सनातन परंपरा की विशालता और राष्ट्र की अपनी भौतिक शक्ति का भाव नहीं हो पा रहा था वो। 

कभी कही से काभ कही से अपने विकास का मॉडल ढूढ़ रहा था। एकात्म मानवदर्शन इस अंकुर के वट वृक्ष बनने की यात्रा अभी जारी है। दीनदयाल जी के एकात्म मानववाद और अन्तोदय के सपने को साकार करने के लिए भारतीय जनता पार्टी की सरकार दृढ़ संकल्प है। इस महान नेता को श्रद्धांजलि देने के लिए राजेंद्र मार्ग पर भीड़ उमड़ पड़ी। उन्हें 12 फरवरी 1968 को भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉक्टर जाकिर हुसैन, प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी और मोरारजी देसाई द्वारा श्रद्धांजलि अर्पित की गई आज तक उनकी मौत एक अनसुलझी पहेली बना हुआ है। 

पंडित दीनदयाल उपाध्याय की पुण्यतिथि कब है

पंडित दीनदयाल उपाध्याय (Pandit Deendayal Upadhyaya) के बारे में एक और बात जो उन्हें सबसे अलग करती है, वह थी उनकी सादा जीवन शैली। इतना बड़ा नेता होने के बाद भी उनमें जरा सा भी अहंकार नहीं था। 11 फरवरी 1968 को मुगलसराय रेलवे यार्ड में उनका शव मिलने के बाद पूरे देश में शौक की लहर दौड़ गई। इस तरह उनकी हत्या को कई लोग भारत के सबसे बुरे घोटालों में से एक मानते थे। लेकिन सच तो यह है कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय जैसे लोग समाज के लिए हमेशा अमर रहते हैं। उनकी याद में 11 फरवरी को उनका पुण्यतिथि मनाया जाता है। 

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