स्वामी दयानंद सरस्वती Swami Dayanand Saraswati अपने महान व्यक्तित्व एवं विलक्षण प्रतिभा के कारण जनमानस के हृदय में विराजमान है। स्वामी दयानंद सरस्वती उन महान सन्तों में अग्रणी हैं जिन्होंने देश में प्रचलित अंधविश्वास, रूढ़िवादिता, विभिन्न प्रकार के आडम्बरों व सभी अमानवीय आचरणों का विरोध किया। हिंदी को राष्ट्र भाषा के रूप में मान्यता देने तथा हिन्दू धर्म के उत्थान व इसके स्वाभिमान को जगाने हेतु स्वामी जी के महत्वपूर्ण योगदान के लिए भारतीय जनमानस हमेशा स्वामी जी का ऋणी रहेगा।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती का जीवन परिचय
उन्नीसवीं शताब्दी के महान समाज-सुधारकों में स्वामी दयानन्द सरस्वती का नाम अत्यंत श्रद्धा के साथ लिया जाता है। जिस समय भारत में चरों ओर पाखंड और मूर्ति-पूजा का बोल-बाला था। स्वामी जी ने इसके खिलाफ आवाज उठाई। उन्होंने भारत में फैली कुरीतियों को दूर करने के लिए 1876 में हरिद्वार के कुम्भ मेले के अवसर पर पाखण्डखंडिनी पताका फहराकर पोंगा-पंधियों को चुनौती दी। उन्होंने फिर से वेद की महिमा की स्थापना की। उन्होंने एक ऐसे समाज की स्थपना की जिसके विचार सुधारवादी और प्रगतिशील थे, जिसे उन्होंने आर्यसमाज के नाम से पुकारा।
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स्वामी सरस्वती जी का कहना था कि विदेशी शासन किसी भी रूप में स्वीकार करने योग्य नहीं होता। स्वामी जी महान राष्ट्र-भक्त और समाज सुधारक थे। समाज-सुधार के सम्बन्ध में गाँधी जी ने भी उनके अनेक कार्यक्रमों को स्वीकार किया। कहा जाता है कि 1857 में स्वतंत्रता संग्राम में भी स्वामी जी ने राष्ट्र के लिए जो कार्य किया वह राष्ट्र के कर्णधारों के लिए सदैव मार्गदर्शन का काम करता रहेगा। स्वामी जी ने विष देने वाले व्यक्ति को भी क्षमा कर दिया, यह बात उनकी दया भावना का जीता-जगाता प्रमाण है।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती का आरंभिक जीवन
दयानन्द सरस्वती का जन्म 12 फरवरी टंकारा में सन 1824 में मोरबी (मुंबई की मोरबी रियासत) के पास काठियावाड़ क्षेत्र (जिला राजकोट) गुजरात में हुआ था। उनके पिता का नाम करशनजी लालजी तिवारी और माता का नाम यशोदाबाई था। उनके पिता एक कर-कलेक्टर होने के साथ ब्राह्मण परिवार के एक अमीर, समृद्ध और प्रभावशाली व्यक्ति थे। दयानन्द सरस्वती का असली नाम मूलशंकर था और उनका प्रारम्भिक जीवन बहुत आराम से बीता। आगे चलकर एक पंडित बनने के लिए वे संस्कृत, वेद, शास्त्रों व अन्य धार्मिक पुस्तकों के अध्यन में लग गए।
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उनके जीवन में ऐसी बहुत सी घटनाएं हुई, जिन्होंने उन्हें हिन्दू धर्म की पारम्परिक मान्यताओं और ईश्वर के बारे में गंभीर प्रश्न पूछने के लिए विवश कर दिया। एक बार शिवरात्रि की घटना है, तब वे बालक थे। शिवरात्रि के उस दिन उनका पूरा परिवार रात्रि जागरण के लिए एक मन्दिर में ही रुका हुआ था। पूरे परिवार को नींद में सो के बाद भी, वह यह जानने के लिए जागते रहे कि भगवान शिव आएंगे और प्रसाद ग्रहण करेंगे।
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उन्होंने देखा की शिव जी के लिए रखे भोग को चूहा खा रहे है। यह देख कर वे बहुत आश्चर्यचकित हुए और सोचने लगे कि जो ईश्वर स्वयं को चढ़ाये गए प्रसाद की रक्षा नहीं कर सकता वह मानव की रक्षा क्या करेगा? इस बात पर उन्होंने अपने पिता से बहस की और तर्क किया कि हमें ऐसे असहाय ईश्वर ईश्वर की उपासना नहीं करना चाहिए।
जीवन क्या है? मृत्यु क्या है? इन सवालों के जवाब सक्षम महात्मा से समझ लेना चाहिए, ऐसा उन्हें लगा। इस ध्येय प्राप्ति के लिए उन्होंने 21 साल की उम्र में अपना घर छोड़ दिया। उनके परिवार के बड़े सदस्यों ने उनके विवाह के बारे में चलाए विचार से ये उनके इस निर्णय की दलील हुई। भौतिक सुख का आनंद लेने के अलावा खुद की आध्यात्मिक उन्नति करवा लेना उन्हें अधिक महत्वपूर्ण लगा।
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उन्होंने मथुरा में स्वामी विरजानन्द जी के पास रहकर वेद आदि आर्य-ग्रंथो का अध्ययन किया। गुरु दक्षिणा रूप में स्वामी विरजानन्द ने उनसे यह प्रण लिया कि वे आयु-भर वेद आदि सत्य विद्याओं का प्रचार करते रहेंगे। स्वामी दयानन्द जी ने अंत तक प्रण को निभाया। एक घटना के बाद इनके जीवन में बदलाव आया और इन्होने सन 1846 को 21 वर्ष की आयु में सन्यासी जीवन का चुनाव किया और अपने घर से विदा लिया।
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उनमें जीवन सच को जानने की इच्छा प्रबल थी जिस कारण उन्हें सांसारिक जीवन व्यर्थ दिखाई दे रहा था इसलिए उन्होंने अपने विवाह के प्रस्ताव को ना बोल दिया। इस विषय पर इनके और इनके पिता के मध्य कई विवाद भी हुए पर इनकी प्रबल इच्छा और दृढ़ता के आगे इनके पिता को झुकना पड़ा। इनके इस व्यवहार से यह स्पष्ट था की इनमें विरोध करने एवं खुलकर अपने विचार व्यक्त करने की कला जन्म से ही निहित थी। इसी कारण ही अंग्रेजी हुकूमत का कड़ा विरोध किया और देश को आर्य भाषा अर्थात हिंदी के प्रति जागरूक बनाया।
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स्वामी दयानन्द जी का कहना था कि विदेशी शासन किसी भी रूप में स्वीकार करने योग्य नहीं होता। धर्म सुधर हेतु अग्रणी रहे दयानन्द सरस्वती ने 1875 में मुंबई में आर्य समाज किया था। वेदों का प्रचार करने के लिए उन्होंने पुरे देश का दौरा करके पंडित विद्वानों को वेदों की महत्ता के बारे में समझाया। स्वामी जी ने धर्म परिवर्तन कर चुके लोगों को पुनः हिन्दू बनने को प्रेरणा देकर शुद्धि आंदोलन चलाया। 1886 में लाहौर में स्वामी दयानन्द के अनुयायी लाला हंसराज ने दयानन्द एंग्लो वैदिक कॉलेज की स्थापना किया था।
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हिंदू समाज ने इसके बारे में एक नई जागरूकता हासिल की और कई तरह के संस्कारों से छुटकारा पाया। स्वामी जी एकेश्वरवाद में विश्वास करते थे। उन्होंने जातियों और बाल विवाह का विरोध किया और महिलाओं की शिक्षा और विधवाओं के विवाह को प्रोत्साहित किया। उन्होंने कहा कि किसी भी गैर-हिंदू को हिंदू धर्म में लाया जा सकता है। इससे हिंदुओं का धर्मांतरण बाधित हुआ।
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समाज दूधर होने के साथ ही दयानंद सरस्वती जी ने अंग्रेजों के खिलाफ भी कई अभियान चलाये। "भारत भारतीयों का है" यह अंग्रेजों के अत्याचारी शासन से तंग आ चुके भारत में कहने का साहस भी सिर्फ दयानंद सरस्वती में ही था। उन्होंने अपने प्रवचनोंके माध्यम से भारतवासियों को राष्ट्रीयता का उपदेश दिया और भारतीयों को देश पर मर मिटने के लिए प्रेरित करते रहे। स्वामी जी ने मन, वचन व कर्म तीनों शक्तियों से समाज उद्धार के लिए प्रयत्न किया।
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अपनी रचनाओं व उपदेशों के माध्यम से भारतीय जनमानस को मानसिक दासत्व से मुक्त कराने की पूर्ण चेष्टा की। उनकी वाणी इतनी अधिक प्रभावी व ओजमयी थी कि श्रोता के अंतर्मन को सीधे प्रभावित करता था। उनमे देश-प्रेम व राष्ट्रीय भावना कूट-कूट कर भरा हुआ था। समाजोत्थान की की दिशा में उनके द्वारा किये गये प्रयास अविस्मरणीय हैं। समाज में व्याप्त बाल विवाह जैसी कुरीतियों का उन्होंने खुले शब्दों में विरोध किया। उनके अनुसार बाल-विवाह शक्तिहीनता के मुलकारणों में से एक है।
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इसके अतिरिक्त वे विधवा विवाह के भी समर्थक थे। स्वामी दयानंद सरस्वती जी को अपनी मातृभाषा हिंदी से विशेष लगाव था। उन्होंने उस समय हिंदी को राष्ट्रभाषा के रुप में मान्यता दिलाने हेतु पूर्ण चेष्टा की। उनके प्रयासों से हिंदी के अतिरिक्त वैदिक धर्म व संस्कृत भाषा को भी समाज में विशेष स्थान प्राप्त हुआ। सच्चे ज्ञान की खोज में इधर उधर घूमने के बाद मूलशंकर, जो की अब स्वामी दयानंद सरस्वती बन चुके थे। मथुरा में वेदों के प्रकांड विद्वान प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द के पास पहुंचे।
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मथुरा के प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द, जो वैदिक साहित्य के माने हुए विद्वान थे। उन्होंने इन्हें वेद पढ़ाया, वेद की शिक्षा दे चुकने के बाद उन्होंने इन शब्दों के साथ दयानन्द को छुट्टी दी "मैं चाहता हूँ की तुम संसार में जाओ और मनुष्यों में ज्ञान की ज्योति फैलाओ" संक्षेप में इनके जीवन को हम पौराणिक हिन्तुत्व से आरम्भ कर दार्शनिक हिन्दुत्व के पथ पर चलते हुए हिन्दुत्व की आधारशिला वैदिक धर्म तक पहुँचता पाते है।
गुरु की आज्ञा शिरोधर्य करके महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने प्न शेष जीवन इसी कार्य में लगा दिया। हरिद्वार जाकर उन्होंने पाखण्डखण्डिनी पताका फहराया और मूर्ति पूजा का विरोध किया। उनका कहना था कि यदि गंगा नहाने, सर मुंडाने और भभूत मलने से स्वर्ग मिलता,तो मछली, भेड़ और गधा स्वर्ग के पहले अधिकारी होते। बुजुर्गों का अपमान करके मृत्यु के बाद उनका श्राद्ध करना वह निरा ढोंग मानते थे।
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छूत का उन्होंने जोरदार खंडन किया। दूसरे धर्म वालो के लिए हिन्दू धर्म के द्वार खोले। महिलाओं की स्थिति सुधरने के लिए प्रयत्न किये। मिथ्या आडम्बर और असमानता के समर्थकों को शास्त्रार्थ में पराजित किया। अपने मत के प्रचार के लिए स्वामी जी 1863 से 1875 तक देश का भ्रमण करते रहे। 1875 में मुंबई में आर्यसमाज की स्थपना की और देखते ही देखते देश भर में इनकी शाखाएं खुल गई। आर्यसमाज वेदों को को ही प्रमाण और अपौरुषेय मानता है।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती का विचार Swami Dayanand Saraswati Quotes in Hindi
- ये शारीर नश्वर है हमे इस शारीर के जरिये सिर्फ एक मौका मिला है, खुद को सबित करने का कि मनुष्यता और आत्मविवेक क्या है।
- वेदों में वर्णित सार का पान करने वाले ही ये जान सकते हैं कि जिंदगी का मूल बिंदु क्या है।
- भोजन क्रोध का विवेक है, इसलिए इससे बचना चाहिए। क्योंकि विवेक नष्ट होने पर सब कुछ नष्ट हो जाता है।
- अहंकार एक मनुष्य के अंदर वो स्थिति ला देता है, जब वह आत्मबल और आत्मज्ञान खो देता है।
- ईष्या से मनुष्य को हमेश दूर रहना चहिअए, क्योंकि ये मनुष्य को अंदर ही अंदर जलती रहती है और पथ से पटककर पथ भ्रष्ट कर देती है।
- अगर मनुष्य का मन शांत है चित्त प्रसन्न है हृदय हर्षित है तो निश्चय ही ये अच्छे कर्मो का फल है।
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