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चंद्रशेखर आजाद (Chandra Shekhar Azad) जयंती और पुण्यतिथि कब है

"मैं आजाद हूँ, आजाद रहूँगा और आजाद ही मरूंगा" देश के महान क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी चंद्रशेखर आजाद का नारा था, जिन्होंने भारत की आजादी के लिए अपना बलिदान दिया। 24 साल की उम्र में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते हुए चंद्रशेखर आजाद शहीद हो गए जो युवाओं के लिए जीवन का सपना देख रहे हैं।

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चंद्रशेखर आजाद का जीवन परिचय Chandra Shekhar Azad in Hindi

चंद्रशेखर आजाद Chandra Shekhar Azad का जन्म 23 जुलाई 1906 को उन्नाव जिले के बदरका कस्बे में हुआ था। उनके पिता का नाम सीताराम तिवारी तथा माता का नाम जगरानी देवी था। चंद्रशेखर की पढाई की शुरुआत मध्य प्रदेश के झाबुआ ज़िले से हुई और बाद मेंउन्हें वाराणसी के संस्कृत विद्यापीठ में भेजा गया। आजाद का बचपन आदिवासी इलाकों में बीता था, यहाँ से उन्होंने भील बालकोंके साथ खेलते हुए धनुष बाण चलाना व निशानेबाजी के गुर सीखे थे। 

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बहुत छोटी मात्र 14-15 साल की उम्र में चन्द्रशेखर आजाद गांधी जी के असहयोग आंदोलन में शामिल हो गए थे। इस आंदोलन से जुड़े बहुत सारे लोगों के साथ चन्द्रशेखर आजाद को भी गिरफ्तार कर लिया गया था। गिरफ्तारी के बाद कोड कहते हुए बार-बार वे भारत माता की जय का नारा लगाते रहे और जब उनसे उनके पिता का नाम पूछा गया तो उन्होंने जबाव दिया था कि  मेरा नाम आज़ाद है, मेरे पिता का नाम स्वतंत्रता और पता जेल है और तभी से उनका नाम चंद्रशेखर सीताराम तिवारी की जगह चंद्रशेखर आजाद बोला जाने लगा इस गिरफ्तारी के बाद आजाद ने ब्रिटिशों से कहा था की अब तुम मुझे कभी नहीं पकड़ पाओगे। 

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एक घटना याद आ रही है। एक बार, चंद्रशेखर आज़ाद ब्रिटिश पुलिस से बचने के लिए एक दोस्त के घर में छिप गए। उस समय, ब्रिटिश पुलिस गुप्तचरों से सूचना प्राप्त करने के बाद वहां पहुंची।  चंद्रशेखर के मिंत्र ने पुलिस से कहा कि चन्द्रशेखर यहां नहीं है पर पुलिस नहीं मानी और घर की तलसीके लिए दबाव डालने लगी तो मित्र की पत्नी ने चंद्रशेखर आजाद को एक देहाती धोती और अंगरखा पहनने को दिया और सर पर साफा बंधवा दिया। 

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वह टोकरी में कुछ अनाज तथा तिल के लड्डुओं को लेकर अपने पति से बोली-सुनो जी, मैं जरा अडोस-पड़ोस में लड्डू बांटकर आती हूँ, तुम घर का ध्यान रखना और फिर ब्रिटिश पुलिस के सामने वह चंद्रशेखर से से बोली - अरे वज्र, मुर्ख, तू क्या यहीं बैठा रहेगा। यह लड्डुओं की टोकरी अपने सिर पर रख और मेरे साथ चल। चंद्रशेखर ने तुरंत सर पर टोकरी उठाई और पुलिस को चकमा देकर मित्र की पत्नी के साथ किसान के भेष में घर से बहार निकल गए। थोड़ा दूर पहुँचकर चंद्रशेखर ने लड्डुओं व् अनाज से भरे टोकरे को एक मंदिर की सीढ़ियों पर रखा और मित्र की पत्नी को धन्यवाद देकर वहां से चले गए। 

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चंद्रशेखर आजाद की मृत्यु और उनका पुण्यतिथि  

आजाद ने भगत सिंह के साथ मिलकर देश की आजादी के लिए अंग्रेजों का साथ दिया। कहा जाता है कि नाम एक ही काम है। उनके नाम के आगे चंद्रशेखर मुक्त हो गया और वह अपनी मृत्यु तक मुक्त रहे। एक बार जब उन्हें इलाहाबाद में उनकी उपस्थिति की सूचना मिली, तो ब्रिटिश पुलिस ने उन्हें और उनके साथियों को चारों तरफ से घेर लिया। अपने साथियों के साथ खुद को बचाते हुए। 

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चंद्रशेखर आजाद (Chandra Shekhar Azad) जयंती और पुण्यतिथि कब है
चंद्रशेखर आजाद पुण्यतिथि 

आजाद ने कई पुलिसकर्मियों पर गोलियां चलाईं और जब वह अपनी पिस्तौल से आखिरी गोली चला रहा था, तब वह खुद पूरी तरह से घायल हो गया था। अगर बचने का कोई रास्ता नहीं था, तो अंग्रेजों के हाथ लगने से पहले ही आज़ाद ने बची आखिरी गोली चला दी। यह घटना 27 फरवरी 1931 को इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में हुई थी। चंद्रशेखर आज़ाद की पिस्तौल अभी भी इलाहाबाद संग्रहालय में देखी जा सकती है।

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आजादी के बाद अल्फ्रेड पार्क का नाम बदलकर चंद्रशेखर आजाद पार्क रख दिया गया। हर वर्ष 27 फरवरी को पुरे देश भर में आजाद जी की पुण्यतिथि मनाया जाता है। चंद्रशेखर आजाद का बलिदान लोग आज भी नहीं भूले हैं। कई स्कूलों, कालेजों, रास्तों व सामाजिक संस्थाओं के नाम उन्हीं के नाम पर रखे गए हैं तथा भारत में कई फ़िल्में भी उनके नाम पर बनी हैं। 

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चंद्रशेखर आजाद कैसे भिड़े थे अकेले अंग्रेजो से

भारत के इतिहास में आज एक स्वर्णिम दिन है। यह दिन उस बहादुर क्रांतिकारी के जीवन का अंतिम दिन था, जिसके नाम पर अधिकारी ब्रिटिश शासन से प्याले में जाते थे। हालाँकि, बहुत कम लोगों को पता होगा कि इस दिन महान क्रांतिकारी पंडित चंद्रशेखर आज़ाद तिवारी ने वीरगति को प्राप्त किया था। 27 फरवरी 1931 को, इलाहाबाद में अंग्रेजी सेना के साथ अकेले लड़ रहे आजाद ने खुद को उस समय निकाल दिया जब उनके पास अपनी शपथ पूरी करने के लिए पिस्तौल में केवल एक गोली बची थी।

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15 अंग्रेज सिपाहियों को निशाना बनाने के बाद जब आजाद की पिस्टल में आखिरी गोली बची थी तब उस गोली को खुद को मारकर देश के प्रति अपना सर्वोच्च बलिदान कर गए थे। वह आखिरी दिन आज भी कई बुजुर्गों को याद हैं और जाने कितनी किताबों में यह घटनाक्रम हमेशा के लिए अमर हो गया है। आइये हम आपको आजाद के उस आखिरी दिन की कहानी से रूपरू कराते हैं और आजादी के नायक वीर योद्धा श्रद्धांजलि देते हैं। 

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अल्फ्रेड पार्क चल रहा था विचार-विमर्श

भगत सिंह की गिरफ्तारी के बाद अब उन्हें फांसी देने की तैयारी चल रही थी। चंद्रशेखर आज़ाद इसे लेकर बहुत चिंतित थे। उन्होंने जेल तोड़कर भगत सिंह को रिहा करने की योजना बनाई थी, लेकिन भगत सिंह इस तरह जेल से बाहर निकलने के लिए तैयार नहीं थे। चंद्रशेखर आज़ाद से परेशान होकर हम भगत सिंह की फांसी को रोकने की कोशिश कर रहे थे। आजाद आनंद भवन के पास अल्फ्रेड पार्क में अपने साथी सुखदेव आदि के साथ बैठे थे।

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वहां वह आगामी योजनाओं के विषय पर वॉचर-विमर्श कर ही रहे थे कि आजाद के अल्फ्रेड पार्क में होने की सूचना अंग्रेजों को दे दी गई। मुखबिरी मिलते ही अंग्रेजों ने क्रांतिकारियों को घेर लिया। अंग्रेजों की कई टुकड़ियां पार्क के अंदर घुस आई  जबकि पूरे पार्क को बाहर से भी घेर लिया गया। उस समय किसी का भी पार्क से बचकर निकल पाना मुश्किल था, लेकिन आजाद यूँ ही आजाद नहीं बन गए थे। 

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अपनी पिस्तौल के बल पर, उसने पहले अपने साथियों को पेड़ों के आवरण से बाहर निकाला और अकेले ही अंग्रेजों से भिड़ गया। हाथ में पिस्तौल और उसमें आठ गोलियां खत्म हो गईं। आजाद ने अपने साथ आठ गोलियों का दूसरा मैंगनीज रखा, फिर से पिस्तौल से लाद दिया और अंग्रेजों को मुंहतोड़ जवाब देते रहे।

जब भी चंद्रशेखर आज़ाद ने गोली चलाई, हर बार निशाना मारा गया और एक वर्दीधारी मारा गया। घबराहट के कारण अंग्रेज भी पेड़ों की आड़ में छिप गए। एक ही क्रांतिकारी के सामने सैकड़ों अंग्रेजी सैनिक बौने साबित हो रहे थे। चंद्रशेखर आज़ाद ने 15 वर्दीधारी पुरुषों को निशाना बनाया था, लेकिन अब उनकी गोलियां खत्म होने वाली थीं। जब चंद्रशेखर आज़ाद ने अपनी पिस्तौल की जाँच की, तो केवल एक गोली बची थी। वह चाहते तो एक और अंग्रेज अधिकारी को गोली मार सकते थे।

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लेकिन उन्होंने कसम खाई थी कि जीते जी उन्हें कोई भी अंग्रेज हाथ नहीं लगा सकेगा। इस कसम को पूरा करने के लिए आखिरकार उस महान योद्धा ने वह फैसला लिया जिससे वह हमेशा के लिए आजाद हो गए। 27 फरवरी 1931 का वह दिन आजाद के लिए अंतिम दिन बन गया। चंद्रशेखर आजाद ने पिस्टल की आखिरी गोली अपनी कनपटी पर चला दी और वहीं पेड़ के नीचे हमेशा-हमेशा के लिए शांत होकर अमर हो गए। 

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आजाद नाम से डरते थे अंग्रेज

आजाद की तरफ से गोलीबारी बंद हो गई और लगभग आधे घंटे तक कोई गोली नहीं चली, फिर ब्रिटिश सैनिक धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगे, लेकिन आजाद का डर था कि एक कदम आगे बढ़ने वाले सैनिक अब जमीन पर रेंग रहे थे। आजाद की ओर बढ़ रहा है। जब आजाद के शव पर अंग्रेजों की नजर पड़ी तो आजाद की आंखों को राहत मिली।

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लेकिन अंग्रेजों के अंदर, चंद्रशेखर आजाद का डर यह था कि कोई भी उनके मृतकों के पास जाने की हिम्मत नहीं करता था। उनके शव को भी निकाल दिया गया था और अंग्रेजों के नष्ट होने पर आजाद की मृत्यु की पुष्टि की गई थी। कई किताबों में आज भी लिखा जाता है कि आजाद को एक बड़े नेता ने सूचित किया था और यह रहस्य आज भी भारत सरकार के पास सुरक्षित फाइलों में दफन है।

दुश्मन की गोलियों का हम सामना करेंगे....

आजाद ही रहे हैं, आजाद ही रहेंगे। 

जय हिन्द जय भारत

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